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रेडियो का वक़्त - ब्रेख्त

फासीवाद के चरमकाल में जर्मनी के ब्रेख्त ने कई नाटक लिखे । इनमें से कुछ नाटकों का अनुवाद अमृतराय ने 'खौफ़ की परछाइयाँ' नाम से किया ।  वैसे तो इस संग्रह के सभी नाटक महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन इस समय मैं आपके सामने एक नाटक को रखता हूँ।  नाटक का शीर्षक-  'रेडियों का वक्त' । भले ही यह नाटक फासीवादी दौर का है लेकिन आप जब इससे होकर गुजरेंगे तो आपको लगेगा यह नाटक तो हमारे समय का है । यह नाटक तो  दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की कहानी कह रहा है ।   आप इस नाटक से होकर गुजरते जाइए आपको महसूस होगा कि नाटक का मुख्य पात्र तो आपका जाना पहचाना है । आपको महसूस होगा कि आप तो उसे रोज टी.वी. पर देखते हैं । आपको महसूस होगा कि इस नाटक  अनाउंसर  तो दिनभर प्राइम टाइम तथा अन्य तमाम बहसों में दिखता रहता है ।     रेडियो का वक़्त   (एक कारखाने में शॉप सुपरिटेंडेंट का दफ्तर। एक रेडियो अनाउंसर हाथ में माइक्रोफोन लेकर एक अधेड़ मजदूर, एक बुड्ढी मजदूरनी और एक कम उम्र मजदूरनी से बातचीत करता है। इन लोगों से पीछे की ओर एक कारखाने का अफसर और एक नाजी सैनिक की पोशाक पहने एक मोटा-तगड़ा आदमी खड़ा है।
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जाति विमर्श का सामान्यबोध बनाम जातीय दमन की वास्तविकता भारत में जाति और जाति आधारित हिंसा की समस्या हज़ारों साल की समस्या है। हजारों साल से ऊँची जाति के लोग दलितों का भयानक शोषण करते आ रहे हैं। ब्राह्मणवादी विचार इस तरह के शोषण को वैधता प्रदान करता आया है। 21 वीं सदी के तीसरे दशक में प्रवेश कर रहे समाज में भी जाति आधारित हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही है। पाँच दशक पहले जब भारतीय राजनीति में ब्राह्मणवादी विचार के खिलाफ अन्य जातियों का उभार हुआ तो ऐसा लगने लगा कि जाति आधारित हिंसा की घटनाओं में कमी आएगी, जातियों का उच्छेद होगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बल्कि यह समस्या दिनों-दिन और बढ़ती जा रही है। आए दिन जाति आधारित हिंसा की खबरें हमें विचलित कर रही है। इसलिए इस संदर्भ में विचार करना बहुत जरूरी है। भारत में जातीय संघर्ष को एक ख़ास तरह के आख्यान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस आख्यान में उच्च जाति बनाम दलित के संघर्ष की बात होती है। बाकी वास्तविकता को छोड़ दिया जाता है। उच्च जाति बनाम दलित के नैरेटिव को लगातार मजबूत किया जाता रहा है जिससे राजनैतिक लाभ के लिए जातीय गोलबंदी हो सके
"यह समझने के लिए कि मैं क्या कहता हूँ, किसी को भी मेरा आचरण देखना होगा..."- महात्मा गांधी के इस कथन के ठीक बाद, मैं यहाँ एक बड़े आचार्य मने एक प्रोफेसर साहब की एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ. शायद उन्होंने यह कविता दीक्षा ग्रहण करते समय अपने किसी आचार्य को ध्यान में रखते हुए लिखी होगी. मैं उनकी यह कविता उनको और उनकी बिरादरी को समर्पित करता हूँ. कविता का शीर्षक है -"इतना तो लोग जानते ही हैं"....   आचार्य दुनिया जहान की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं एक ही कविता और कहानी की अनेक व्याख्याएं और प्रतिव्याख्याएं कर सकतें हैं आदर्श और नैतिकता की उनसे अच्छी व्याख्या कोई क्या कर सकता है पर अपने जीवन में इसका उलट व्यवहार करते हैं वे व्याख्या की अद्भुत क्षमता राजनीति और षडयंत्र द्वारा अर्जित शक्ति के नाते उनकी पूछ और ज़रुरत बनी रहती है लोग उनसे डरते हैं, क्योंकि उन्हीं से अपना काम निकालना होता है इसलिए कोई कुछ नहीं कहता, पर इतना तो लोग जानते ही हैं कि ऐसे लोग किसी का आदर्श नहीं बन सकते आदर्श बनने के लिए नैतिक आचरण देखते हैं लोग अनैतिक आचरण से उ
आद्य नायिका : इतिहास के तिलस्म में कैद वर्तमान ‘ जब इतिहास का शव आपके कंधे पर सवार हो और आप उसे उठाकर फेंक भी नहीं सकते ’ तब आप इस स्थिति में वर्तमान को समझने के लिए इतिहास एवं इतिहासबोध का सर्जनात्मक उपयोग करते हैं । इसी सर्जनात्मकता का सहारा लेकर युवा कवि अरुणाभ सौरभ ने ‘आद्य नायिका’ शीर्षक से लंबी कविता लिखी है। अरुणाभ ने अपनी लंबी कविता ‘आद्य नायिका’ में इतिहास, मिथक और अपने समकाल को एक विशिष्ट रचनात्मक आयाम दिया है । यह लंबी कविता मौर्य साम्राज्य के पतन एवं शुंग वंश की स्थापना के साथ ब्राह्मणों द्वारा सत्ता-वर्चस्व की नीति और षड्यंत्रों के सहारे हो रहे बौद्धों और बौद्धिकों के दमन को केंद्र में रखकर लिखी गयी है । आज जब हमारी राजनीति इतिहास के गर्भगृह में पहुंचकर परिपक्क हो रहे भ्रूणों के साथ छेड़छाड़ कर रही है तब राजनीति के नए यथार्थ और नए चरित्र को पकड़ने के लिए कवि को इतिहास में लौटना पड़ता है । ऐतिहासिकता से संपृक्त यह कविता हमारे समकाल, समकालीन परिस्थितियों एवं प्रतिकूल वातावरण को व्यक्त करने में सक्षम है। पटना के नजदीक दीदारगंज में गंगा नदी के किनारे सन् 1917 ई. में